और हम रुके रुके खुमार देखते रहे .......

क्या खुला ज़हान था 
उम्र पर ग़ुमान था 
दिल मेरा स्वतंत्र मूक पख्छि की उड़ान था
किन्तु एक रोज पाँव आप ही ठहर चले 
कौतुहल विचित्र जान नेत्र भी सहर चले  
कुछ अज़ीब हो गया कि कुछ भी ना समझ सके
न खेल को समझ सके ना खेलना समझ सके 
और हम गिरे गिरे 
भाव से घिरे घिरे 
प्रेम के प्रपंच का सृंगार देखते रहे 
वो खेल खेलता गया ख़ुमार देखते रहे 

आँख भी खुली न थी कि हाय नज़र लग गयी
भोर तक हुई न थी कि दोपहर गुज़र गयी
कुछ हवा बदल चली कि वो उड़ान रुक गयी 
मोम भी पिघल चले कि शाख़शाख़ झुक गयी 
चाल ना संभल सकी तो कुछ दिशा बदल गयी 
वेग सी  ह्रदय में सुप्त अग्नि भी मचल गयी 
और हम रुके रुके 
राह में थके थके 
प्रेम के स्पर्श की बहार देखते रहे 
वो खेल खेलता गया ख़ुमार देखते रहे 

क्या हसीन दौर था कि दिल लगाव कर उठा 
स्वप्न की शिरौमणी का खुद चुनाव कर उठा 
क्या वसंत था कि फूल फूल प्यार कर उठा
एक ही स्वरूप देख जो मिला नज़र उठा 
क्या विडम्बना थी अग्नि छीर पार कर उठा
इस तरफ ह्रदय उठा तो उस तरफ जिगर उठा
और हम पिटे पिटे
 प्रेम में लुटे लुटे 
पुष्प भरे प्यार का प्रहार देखते रहे 
वो खेल खेलता गया ख़ुमार देखते रहे

- शशांक 

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