जब गिरकर उठना उठकर चलना ही खुद्दारी लगता है....

जब ये रंगीली दुनिया , काली काली सी हो जाती है 
वर्तमान की आशायें सब जाली सी हो जाती है

जब आँखें झुककर  चलनेेे को , विवश दिखाई देती हैं
दिल के कोने में रोने की , कुछ चीख सुनाई देतीं है

जब इस -उस के असमंजस में,आँखें  गीली हो जाती हैं  जब अपनों के रिस्तों की गांठें , सब ढीली हो जाती हैं 

जब सब यारो का जलसा भी कुछ बेगाना सा लगता है 
जब अपने घर का रस्ता भी सुनसान विराना लगता है 

जब लोगों का मेला भी बस , इक सन्नटा लगता है 
विश्वासों का रैला भी बस,  सैर सपाटा लगता है 

तब घुट घुटकर जीने में बर्बाद जवानी लगती है 
कष्टों और संघर्षों की बेअंत कहानी लगती है 

फिर मन के सन्नाटे में आवाज कहीं से आती है 
स्याही सी काली रातों में इक किरण कहीं दिख जाती है 

फिर हलातों और भावों में ऐसा विप्लव आता है 
आशा  के अँधेरे में काँटों का पथ दिख जाता है 

अश्रु बहा रोते रहना दिल को दुस्वारी लगता है 
और गिरकर उठना उठकर चलना ही खुद्दारी लगता है 

जो कल तक एक बेगाना था वो जाना जाना लगता है 
जो कल तक की कहानी थी वो एक फ़साना लगता है 

एक रंग का अम्बर अब रंगीन दिखाई देता है 
शायद गम ख़ुद आज ज़रा ग़मगीन दखाई देता है 

हार जीत के शोरों में संगीत सुनाई देता है 
आगे बढ़कर पीछे मुड़ना कुछ गद्दारी लगता है 
जब
गिरकर उठना उठकर चलना ही खुद्दारी लगता है ।

- शशांक 

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